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Rajrishi

मन की शांति के लिए प्रभावकारी टेक्नीक है – ‘ओमशान्ति’ – ब्रह्माकुमारी मंजू दीदी

मन की शांति के लिए प्रभावकारी टेक्नीक है – ‘ओमशान्ति’ – ब्रह्माकुमारी मंजू दीदी

ब्रह्माकुमारीज़ टिकरापारा में रविवार को मन की शांति पर विशेष क्लास का आयोजन

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‘‘ओमशांति एक ऐसा महामंत्र है जो कैसा भी दुख का, अशांति का वायुमण्डल हो, विपरीत परिस्थितियों का दृश्य सामने हो, उसे भी परिवर्तित कर शांत कर देता है। मुख के साथ मन की शांति से मन की डांस होती है जो किसी को तकलीफ नहीं देती। मन की शांति तन को भी शांत कर देती है और कई बीमारियां भी नष्ट हो जाती हैं। क्यांकि नकारात्मक एवं व्यर्थ विचार के कारण ही कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जब हम शांति पाठ करते हैं तो अंत में तीन बार ओमशांति कहते हैं उस समय हमें तीन बातें स्मृति में आनी चाहिये कि मैं आत्मा शांत स्वरूप हूं, शांति के सागर परमात्मा की संतान हूं और शांतिधाम मुझ आत्मा का घर है।’’
उक्त बातें ब्रह्माकुमारीज़ टिकरापारा में आयोजित रविवार विशेष क्लास में उपस्थित साधकों को परमात्मा महावाक्य सुनाते हुए सेवाकेन्द्र प्रभारी ब्र.कु. मंजू दीदी जी ने कही। उन्होंने कहा कि मन की शांति से सब तरफ की शांति बढ़ती है। हम सबको एक माह इसी अभ्यास से मन की शक्ति बढ़ाना है। जब बोल ऊपर नीचे होता है तो वह आपसी मतभेद, तनाव, रिश्तों में खटास व अनेक झगड़ों का कारण बन जाता है। इसके बजाये यदि हम तुरंत रिप्लाई न करें, कुछ देर शांत रहें तो उतने में ही संबंध सुधरते जाते हैं। वह चाहे ऑफिस की बात हो या घर की बात हो। सबसे बड़ी संपत्ति है रूहानी स्नेह। यह स्नेह निःस्वार्थ होता है और आगे बढ़ाने वाला होता है। इसमें रूप-रंग की बात नहीं होती। इसमें तो वसुधैव कुटुम्बकम की भावना होती है। हर एक अपना होता है। जिस्मानी स्नेह तो पतन का कारण बन जाता है। यह कोई स्नेह नहीं होता, यह तो शारीरिक आकर्षण होता है जिसके कारण ईर्ष्या, घृणा, क्रोध का भाव उत्पन्न होता है।
सहयोगी से सहजयोगी
ईश्वर से योग लगाना कोई कठिन साधना नहीं है। योग लगाने अर्थात् सहजयोगी बनने की सबसे सरल विधि है किसी भी ईश्वरीय कार्य में सहयोगी बनना। वह चाहे तन-मन-धन हो, मन-वचन-कर्म हो या किसी भी विशेषता को ईश्वरीय सेवा में लगाना हो, सभी प्रकार से हम सहयोगी बन सकते हैं। और जहां हमारा तन या धन लगता है वहीं हमारे मन व बुद्धि का योग लगा रहता है। सेवा चाहे झाड़ू-पोछे की हो या प्रवचन कर परमात्मा का संदेश देने की, दोनों की महत्ता होती है। सेवा कोई छोटी या बड़ी नहीं होती।

प्रति,
भ्राता सम्पादक महोदय,
दैनिक………………………..
बिलासपुर (छ.ग.)

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