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Rajrishi

*ज्ञान यज्ञ सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है जिसमे विकारों की आहुति देते है: ब्रह्माकुमारी मंजू दीदी

*ज्ञान यज्ञ सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है जिसमे विकारों की आहुति देते है: ब्रह्माकुमारी मंजू दीदी*

उत्तम तरीके से करें हर कार्य, क्योंकि हर कार्य का परिणाम हमें ही मिलेगा

सभी प्रकार के भय से मुक्त करते हैं भगवान

बिलासपुर- शिव अनुराग भवन राजकिशोरनगर मे श्रीमद्भगवद्गीता के नवम् अध्याय पर चिंतन को आगे बढाते दीदी ने कहा कि 22 वे श्लोक मे भगवान अर्जुन से कहते है कि जो सदैव मुझमे तल्लीन रहते है उनकी आवश्यकताए भी मै पूरी करता हूं और साथ ही जो भी उनके स्वामित्व मे है उसकी रक्षा भी करता हूँ।

यहाँ परमात्मा दोनो प्रकार के भय से मुक्त करते है जिससे प्रायः सभी मनुष्य ग्रसित है। पहला वर्तमान आवश्यकता की पूर्ति और दूसरा संचित धन, परिवार इत्यादि की सुरक्षा ।

दीदी ने कहा कि इसके लिए घर परिवार जीवकोपार्जन छोडना नही है, न ही संपूर्ण धन ईश्वरीय कार्य मे सौपना है, वरन् अपनी रचना के स्वामी बनकर श्रेष्ठ रीति से चलाने की प्रेरणा परमात्मा देते है। परमात्मा कहते है कि हे अर्जुन मेरी अनन्य भक्ति अगर महापापी भी करते है तो उनसे घृणा मत कर क्योंकि मनुष्य मे मुझसे योग लगा स्वयं मे परिवर्तन करने की क्षमता होती है। तो समझने की बात है कि पहले से ही ज्ञानी, राजॠषि के भाग्य का कहना ही क्या।

एक दृष्टांत देते हुए दीदी ने कहा कि एक राजा के पास लगन से काम करने वाला कुशल भवन राजमिस्त्री था। अलबेलेपन के कारण उसमे अपने काम के प्रति अनिक्षा पैदा हुई और उसने राजा से काम काज से मुक्त होने की इच्छा जतायी। चूंकि राजा के मन मे राजमिस्त्री के लिए विशेष सम्मान था इसलिए आग्रह किया कि अंतिम बार अपना सर्वश्रेष्ठ कौशल का प्रर्दशन कर एक सुन्दर भवन का निर्माण करे। राजमिस्त्री ने अनमने भाव से भवन तैयार कर राजा को चाबी सौपा तो राजा ने राजमिस्त्री की आजीवन सेवा भाव के पुरस्कार स्वरूप उस भवन का चाबी उसी राजमिस्त्री को सौप दिया। जाहिर है पश्चाताप तो हुआ होगा।

इसी प्रकार परमात्मा हमे स्वर्ग का सुख देना चाहते है और बदले मे सिर्फ इस एक जन्म पवित्रता, श्रेष्ठ कर्म की आश रखते है लेकिन हम ही अगर अलबेले रहे तो भाग्य-विधाता भी क्या करे?

चौतीसवे श्लोक मे परमात्मा ने मनमनाभव का प्रयोग किया । दीदी ने इसका विस्तार करते स्पष्ट किया कि परमात्मा कहते है कि मन से मुझे याद कर। मन जहाँ लगेगा वहाँ तन से भी सेवा होगी और जहाँ तन मन समर्पित होगा वहाँ धन भी सफल होगा।
इस ईश्वरीय परिवार में हमारी सफलता की कुंजी एकनामी और इकॉनामी ही है। व्यसनों, व्यर्थ श्रृंगार, व्यर्थ खानपान त्यागने से स्वतः बचत होती है जिसे यज्ञ मे बिना नाम मान की अभिलाषा के सफल किया जाता है।

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